दो बच्चे। दो जीवन। एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने जाता है। सुबह मां बाप दादी सब मिलकर उसे उठाते, तैयार करते, नाश्ता करवाते और फिर टिफिन देकर स्कूल बस पर बैठा देते हैं। बच्चा स्कूल से आता तो चेक करते कि कोई दिक्कत तो नहीं। होमवर्क करवाते हैं। कोचिंग छोड़ने जाते हैं। पैरेंट्स मीटिंग में जाते हैं। हर महीने ठीक ठाक फीस जमा करते हैं।
साभार: गूगलदूसरा बच्चा। जो सरकारी स्कूल में जाता है। सुबह कोई उठाने वाला नहीं। उठा भी तो कुछ खाने को नहीं मिला। नहाया नहीं। तैयार होने जैसा कुछ नहीं। स्कूल का ड्रेस पहनकर सो गया था, वही पहनकर मोहल्ले के दो लड़कों के साथ चल दिया। रास्ते में गोली खेलने लगा। वो तो माट साब राउंड पर निकले तो पकड़कर ले गए।
स्कूल में बच्चे का फोकस पढ़ाई से ज्यादा मिड डे मील पर है। क्योंकि घर से कुछ खाकर आया नहीं। बच्चा है तो भूख लगना स्वाभाविक है। मिड डे मील मिला। खाया। स्कूल में छुट्टी हुई, घर दो घंटे लेट पहुंचा। कोई पूछने वाला नहीं। कोई होम वर्क जांचने वाला नहीं।
ये किसी एक बच्चे की नहीं बल्कि 80 फीसदी बच्चों का यही हाल है। केवल यूपी में सरकारी स्कूल में पढ़ने वालों की संख्या 1 करोड़ 70 लाख के पार है, आप सोचिए 80% कितना होता है।
सरकारी स्कूल इस देश में सुधार का पहला माध्यम है। गांव में बंद होगा तो ये बालक 3 किलोमीटर दूर किसी दूसरे गांव में नहीं जायेंगे। ये पढ़ाई छोड़ देंगे। इन्हें। किसी प्राइवेट स्कूल के बच्चों से कंपेयर करने की ज़रूरत नहीं है। इन्हें बस साक्षर करने की ज़रूरत है, ताकि ये थोड़ी बहुत दुनियादारी तो समझ पाएं।
आप मुझे कोस सकते हैं। कह सकते हैं कि फर्जी बात करता है लेकिन हकीकत यही है दोस्त। मैं खुद सरकारी स्कूल का पढ़ा हुआ हूं। उस वक्त खाना नहीं मिलता था, चावल मिलता था।
~~ राजेश साहू
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